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*श्रीरामायण-तत्त्व-रहस्य भाग ३*
गोवर्धनपीठाधीश्वर पूज्यपाद जगद्गुरु श्रीशंकराचार्य स्वामीजी श्री १०८ श्रीभारती कृष्णतीर्थजी महाराज

गतांक से -

इसी परमावश्यक कार्यमें हम लोगोंको सहायता देने के लिये, सर्वज्ञ महर्षियोंने अपनी विशाल तपस्या के बलसे अनुभव किये हुए बड़े-बड़े तत्त्वोंको हमारे सामने, अधिकार-भेद के अनुसार, अनेक तथा भिन्न-भिन्न प्रकारके शस्त्र प्रन्थोंके रूप में रखकर, महान् उपकार तथा अनुग्रह किया है। इन ग्रन्थों में श्रीमद्भगवद्गीता, श्रीमद्भागवत, श्रीमद्रामायण आदि अनेक ग्रन्थरत्न जगद्विख्यात हैं जो अत्युत्तम ज्ञानी से लेकर अति पामर और अधमाधम मनुष्य तक सब प्रकार के अधिकारियोंके अपनी-अपनी योग्यता और अधिकार के अनुसार, कर्म, भक्ति और ज्ञान इन तीनों मार्गोंपर कुछ-न-कुछ प्रकाश डालकर इहलोक तथा परलोकमें परम कल्याणकी प्राप्तिमें अत्यन्त सहायता देने वाले हैं।

उपर्युक्त उद्देश्यकी पूर्ति के लिये ही श्रीमद्भगवद्गीतामें भगवान्ने उपदेश दिया है। गीता के प्रथमाध्याय में अर्जुनरूपी नरके विषादयुक्त रुदनसे तथा उस अध्यायके 'अर्जुन-विषाद-योग' नामसे यह स्पष्ट है कि सहस्रों प्रकारके झंझटोंमें पड़े हुए आगे पीछेकी परस्पर विरुद्ध बातोंका समन्वय न कर सकने के कारण दुखी होकर रोते रहना ही नरका लक्षण है। भगवान् श्रीकृष्णरूपी नारायण के समस्त उपदेशसे तथा 'श्रीमद्भगवद्गीता' शब्दसे भी यह स्पष्ट है कि सुख-दुःख, लाभालाभ तथा जय-पराजयकी चिन्ता छोड़कर निष्काम भावसे अपने कर्तव्यको केवल कर्त्तव्य बुद्धिसे ही करते हुए, नाचते- खेलते-गाते रहना, अर्थात् सभी अवस्था और क्रियाओंमें सच्ची शान्ति और आनन्दमें निमग्न रहना ही नारायणका लक्षण है, अतएव यदि किसी मनुष्यको सब दुःखों तथा बन्धनोंसे मुक्त होकर अपने लक्ष्यरूपी नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, सच्चिदानन्दघनस्वरूपी परमात्मरूप परमार्थं स्वरूप में पहुँचना हो, अर्थात् यदि किसी नरको नारायण बनना हो, तो उसे भी, अर्जुनरूपी नरकी तरह श्रीकृष्णरूपी नारायण को ही अपने रथका सारथि बनाकर उससे यह कहना चाहिये कि ---

‘यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्॥ '

'मैं आपका शिष्य हूँ, आपके शरण हूँ, मेरे लिये जो कुछ निश्चित श्रेय हो वही बतलाइये.' तदनन्तर नारायण से न केवल अपने लिये बल्कि भगवच्छरणागत भक्तमात्र के लिये यह अद्वितीय अभय दान प्राप्त करना योग्य है, कि 'सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |
अहंत्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥
'कौन्तेय ! प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति ।
‘अनन्याचिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥'

'समस्त कर्मोके आश्रयको त्याग केवल एक सच्चिदानन्दघन वासुदेवकी शरण हो जा। 'मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, तू शोक न कर।' 'हे कौन्तेय ! यह निश्चयकर कि मेरे भक्तका नाश नहीं होता।' 'जो अनन्य भक्त मुझे चिन्तन करते हुए ; मेरी उपासना करते हैं उन नित्य मुझमें लगे हुए पुरुषोंका योगक्षेम मैं स्वयं वहन करता हूँ।'

इसप्रकार उसीके उपदेशामृतका श्रवण करके अन्त में उसके-

कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा।
कच्चिदज्ञानसंमोहः प्रनष्टस्ते धनञ्जय।

- इस प्रश्नको सुनकर दृढ़ निश्चय के साथ उसको यह जवाब देते हुए कि

नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव॥

'हे अच्युत ! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया, मुझे स्मृति प्राप्त हो गयी, मैं सन्देहरहित होकर स्थित हैं, अब आपकी ही आज्ञाका पालन करूँगा।' श्रद्धा-भक्ति-प्रेमके बलसे निर्भय तथा निश्चिन्त होकर, उसीके हाथ में अपने रथकी लगाम छोड़कर, उसीकी आज्ञानुसार अपने वर्णाश्रमादि अधिकारसिद्ध कर्तव्य कर्मको पूरा करके, इस नियमके अनुसार कि-
-
मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः।
असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु॥

भक्तिसमेत कर्मयोगसे अन्तःकरणकी शुद्धि के द्वारा संशय, विकल्प, विपरीतभावनारूपी दोषत्रयरहित और अखण्ड विज्ञानको पाकर मोक्षकी प्राप्ति करने में विजय
प्राप्त की जा सकती है, क्योंकि-
-
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥

- जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण रूपी नारायणको अपने सारथिरूपसे धागे करके धनुर्धारी पार्थरूपी नर पीछे रहकर युद्ध करता हो, वहाँ लक्ष्मी, जय, विभूति और नीति अवश्य ही रहेंगी। यही गीतोक्त उपदेशका सारांश है।

-
क्रमशः
साभार : कल्याण
संकलन : पं. हीरेनभाई त्रिवेदी,क्षेत्रज्ञ
श्रीवैदिकब्राह्मणः🚩गुजरात
परमधर्मसंसद१००८

https://www.instagram.com/shrivaidikbrahmanah
*श्रीरामायण-तत्त्व-रहस्य भाग ४*
गोवर्धनपीठाधीश्वर पूज्यपाद जगद्गुरु श्रीशंकराचार्य स्वामीजी श्री १०८ श्रीभारती कृष्णतीर्थजी महाराज

गतांक से -

इसी प्रकारसे नर होकर नारायण बननेके लिये, अर्थात् रोना छोड़कर गाते रहने के लिये, नारायणको ही अपने शरीरादि रूपी रथका सारथि बनाकर, श्रद्धा, भक्ति और प्रेम के बलसे निर्भय तथा निश्चिन्त होकर, उसीके हाथमें अपने रथकी लगाम सौंपकर, उसीकी आज्ञानुसार अपने वर्णाश्रमादि अधिकारसिद्ध कर्तव्यों को निःस्पृहता और केवल कर्तव्य बुद्धि से पूरा करके, भक्तियुक्त कर्मयोगसे अन्तःकरणको शुद्धि के द्वारा ज्ञान और मोक्ष प्राप्त करनेमें विजयी होना होगा।

श्रीमद्भागवत में श्रीभगवान् श्रीकृष्णचन्द्रादि रूपसे इसी तत्वको अपने इतिहास तथा जीवनचरित्रसे दिखाया है कि नारायण का यही लक्षण है जो ऊपर बताया गया है।

श्रीमद्रामायण में श्री भगवान् ने श्रीरामचन्द्र रूप से पधारकर प्रत्येक व्यवहार में अपनी आदर्शभूत जीवन प्रणाली से मनुष्यजातिको यह दिखलाया है कि मनुष्यमात्रको किसप्रकार संसारके अनेक प्रकारके दुःखोंका सामना करते हुए धर्मका पालन करना है। कर्म, भक्ति और ज्ञान इन तीनों काण्डोंकी दृष्टिले भी भगवान् श्रीरामचन्द्रका इतिहास हमलोगोंके लिये अत्यन्त श्रावश्यक और उपयुक्त शिक्षा देता है।

अनेक प्रकारके सम्बन्धियों के साथ व्यवहार में यथोचित सदाचरण की दृष्टि से देखें तो भगवान् श्रीरामचन्द्रने अपने गुरुजन, माता, विमाता, पिता, भ्रातृगण, सहायक, सेवक, सर्वसाधारण प्रजा यादि सभी सम्बन्धियोंके साथ यहाँ तक कि शत्रुओं के साथ भी ऐसा सुन्दर आदर्श व्यवहार किया है जो बात-बातमें हम लोगोंके लिये अत्युत्तम रीतिसे शिक्षाप्रद है और जिसके विशेष विस्तारपूर्वक वर्णनकी कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि श्रीरामचन्द्र सम्बन्धी ये सभी बातें जगतप्रसिद्ध हैं।

परन्तु इस प्रसंग में इस बात के लिये विशेष रूपसे ध्यान देना होगा कि भगवान् की दया तथा प्रेमके पात्र बनने के लिये प्रेम तथा भक्ति के अतिरिक्त और अन्य किसी भी प्रयोजक लक्षणकी आवश्यकता नहीं है। इस विषयमें श्रीरामचन्द्रजीके माता, पिता, गुरु आदि खास सम्बन्धियोंके अतिरिक्त, अनागरिक अरण्यवासी गुह, पशुरूप में आये हुए महावीरादि वानरगण और राक्षस जात्यन्तर्गत विभीषण आदिका स्मरण कराना पर्याप्त है। विस्तृत वर्णनकी कोई आवश्यकता नहीं ।

कर्मकाण्डके अन्तर्गत क्षत्रिय धर्मकी खास दृष्टि से देखा जाय तो उसमें अपने सुख-दुःखादिकी परवा न करते हुए, केवल धर्म-बुद्धिसे तथा विना ही द्वेष शत्रुनिबर्हण करना और प्रजापालन करना ही मुख्य है। भगवान् श्रीरामचन्द्रजी इन दोनों अंशों में भी अनुपम ही थे।

शत्रुनिबर्हण में भगवान् श्रीरामचन्द्रजी अपनी बाल्यावस्था में किये हुए ताडकासंहारसे लेकर अन्त में रावणादिके संहारतक द्वेषरहित हो केवल धर्मबुद्धि और सत्यप्रतिज्ञा के साथ अद्वितीय शूरता और पराक्रमसे युद्ध करनेवाले ही थे।इस बातका पता इसीसे लगता है कि जब श्रीलक्ष्मणजी इन्द्रजितको किसी प्रकार किसी भी अस्त्र-शस्त्र दिसे परास्त न कर सके तब उन्होंने ऐन्द्रास्त्र हाथमें लेकर कहा कि-

धर्मात्मा सत्यसन्धश्च रामो दाशरथिर्यदि ।
समरे चाप्रतिद्वन्द्वः शरैनं जहि रावणिम् ||

'यदि दशरथनन्दन श्रीराम धर्मात्मा, सत्यसन्ध और रण में प्रतिद्वन्द्वी न रखनेवाले हों तो यह बाण इन्द्रजितका वध करे। इसप्रकार श्रीरामचन्द्रजी की धर्मात्मता, सत्यप्रतिज्ञता और अद्वितीय युद्धवीरता पर मन्त्ररूपी शपथ करके छोड़े हुए एक ही बाणसे उसी शपथके बलसे उन्होंने इन्द्रजितको मार डाला था। भगवान् पूर्णांवतार श्रीकृष्णचन्द्रजीने भी श्रीभगवद्गीता के दशमाध्याय में अपनी विभूतियोंके वर्णन के प्रसंग में 'रामः शस्त्रभृतामहम्' कहकर स्पष्ट किया है कि शस्त्रधारियों अर्थात् युद्धवीरोंमें श्रीरामचन्द्रजी सर्वोत्तम थे।

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क्रमशः
साभार : कल्याण
संकलन : पं. हीरेनभाई त्रिवेदी,क्षेत्रज्ञ
श्रीवैदिकब्राह्मणः🚩गुजरात
परमधर्मसंसद१००८

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*श्रीरामायण-तत्त्व-रहस्य भाग ५*
गोवर्धनपीठाधीश्वर पूज्यपाद जगद्गुरु श्रीशंकराचार्य स्वामीजी श्री १०८ श्रीभारती कृष्णतीर्थजी महाराज

गतांक से -

प्रजापालनके विषय में तो ये जगप्रसिद्ध बात है कि श्रीरामचन्द्रजीने प्रजाके मनमें शंकाकी सम्भावनासे भी उसे दुःख न होने देनेके ख्यालसे, उस भगवती श्रीसीतादेवीके वियोगकी परम असह्य दुःखवेदनाको सहा,.जो अपने प्राणोंसे भी अधिक प्रिय थी और जिसके लिये अरण्य तथा लङ्का में भगवान्ने भयंकर कष्ट उठाये थे।

श्रीरामचन्द्रजीका शासन इतना धर्मपूर्ण था कि उनके राज्य में प्रजाको दुर्भिक्ष, अकालमृत्यु आदि आज कलकी दृष्टिसे तो अतिसाधारण दुःख भी कभी नहीं हो सकते थे ।

जब इस नियमके एकमात्र अपवादस्वरूप एक ब्राह्मण बालककी मृत्यु हुई और उसका पिता भगवान् के राजभवनके द्वारपर पहुँचकर खरी-खोटी सुनाने लगा कि राजाके अधर्मसे ही हमारे बालककी अकालमृत्यु हुई है इत्यादि, तब श्रीरामचन्द्रजीने उसको राजनिन्दा करनेवाला राजद्रोही 'समझकर न तो दण्ड दिया और न उसका कोई खण्डन या प्रतिवाद ही किया बल्कि अत्यन्त नम्रता के साथ यह स्वीकार किया कि 'यद्यपि हमने स्वयं ऐसा कोई पाप नहीं किया है, तो भी यदि हमने अपने राज्य में ऐसा कुछ कुकर्म होने दिया हो जिससे इस ब्राह्मणके बालककी यह अकालमृत्यु हुई है, तो यह अनर्थं भी हमारे ही दोषसे हुआ है, क्योंकि राजाकी हैसियतसे हमारा ही यह कर्तव्य है कि हम स्वयं सदाचारी रहते हुए राज्य में भी पापाचरण न होने दें। अतएव हम प्रत्येक दिशा में घूमकर पता लगायेंगे कि राज्य में कहाँ क्या पाप हुआ है जिसके कारण हमारे राज्य में एक बार भी अपवादरूपसे भी एक अकाल मृत्युका प्रसंग आया।'

तदनन्तर भगवान ने उस पापका पता लगाकर उसे दूर भी कर दिया, इस विषयपर विशेष विस्तारकी आवश्यकता नहीं, क्योंकि श्रीरामचन्द्रजीके समय के बाद त्रेता और द्वापर इन दोनों युगोंकी समाप्ति होकर तीसरे युगमें पाँच हजार एकतीस वर्षके बीत जानेपर भी, अब भी, जब-जब तथा जहाँ जहाँ आदर्श राज्यशासन तथा प्रजाके सुखका जिक्र करनेकी आवश्यकता होती है, तब-तब और तहाँ-तहाँ सारे भारतवर्ष में यही प्रथा है कि लम्बे-लम्बे वर्णन न करके, आदर्श यादि छोटे शब्दोंसे भी काम न लेकर, केवल 'रामराज्य' शब्दसे ही वक्ता अपने पूरे तात्पर्यको स्पष्ट कर देते हैं और श्रोता भी उसका अर्थ समझ लेते हैं।

आचार-व्यवहार, युद्धवीरता, धार्मिक शासन आदिके पश्चात् जब उपासना और ज्ञानकाण्डकी दृष्टि से देखते हैं, तो श्रीरामचन्द्रजीकी महिमा केवल पुराणोंसे ही सिद्ध नहीं है, (जिनपर आजकलके सुधारक अश्रद्धा के साथ कटाक्ष किया करते हैं ) सीतोपनिषद्, रामरहस्योपनिषद् रामतापिन्युपनिषद्, मुक्तिकोपनिषद् आदि वेदान्तकी खास- खास मूल श्रुतियोंसे भी प्रसिद्ध है।

उपासनाकाण्डकी दृष्टि से भी श्रीरामचन्द्रजीका माहात्म्य पुराणोंसे तथा उपर्युक्त उपनिपदोंसे यहाँ तक स्पष्ट है कि भगवान् श्रीशंकर भी स्वयं सर्वदा राम-नाम रहते हुए श्रीपार्वतीजीसे कहते हैं-

राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे ।
सहस्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने ॥

- और मुक्तिपुरी श्रीकाशीक्षेत्र में श्रीविश्वनाथरूपसे अधिष्ठाता होकर, वहाँ मरनेवालोंके दक्षिण कर्ण में अपने श्रीमुखसे ही रामतारक-मन्त्रोपदेश देकर उनको मुक्ति देते हैं इत्यादि । ये सभी बातें इतनी प्रख्यात हैं कि इनका केवल उल्लेख ही पर्याप्त है, वर्णनकी आवश्यकता नहीं।

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क्रमशः
साभार : कल्याण
संकलन : पं. हीरेनभाई त्रिवेदी,क्षेत्रज्ञ
श्रीवैदिकब्राह्मणः🚩गुजरात
परमधर्मसंसद१००८

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*श्रीरामायण-तत्त्व-रहस्य भाग ६*
गोवर्धनपीठाधीश्वर पूज्यपाद जगद्गुरु श्रीशंकराचार्य स्वामीजी श्री १०८ श्रीभारती कृष्णतीर्थजी महाराज

गतांक से -

अब कर्म, उपासना और ज्ञानकाण्डकी सम्मिलित दृष्टिसे अर्थात् अत्यन्त उपयोगी आध्यात्मिक दृष्टिसे भी विचार करना चाहिये कि श्रीरामायणका बताया हुआ आध्यात्मिक तत्व कौन-सा है ? परम लक्ष्य क्या है ? और उसके साधन क्या क्या हैं? इस विषयपर भगवान् जगद्गुरु श्रीआदिशंकराचार्य महाराजजीने अपने 'आत्मबोध' नामक छोटे परन्तु अति सुन्दर वेदान्त-ग्रन्थमें इस एक ही लोकसे दिग्दर्शनमात्र करा दिया है। यथा-

तीर्त्वा मोहार्णवं हत्वा राग-द्वेषादि-राक्षसान्।
योगी शान्ति-समायुक्तः आत्मारामो विराजते॥

श्रीमद्भगवद्गीता -
यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते॥

इन लक्षणों के अनुसार जो आत्माराम बना हो, वही आत्मरामरूपी श्रीराम अज्ञानरूपी समुद्रसे पार होकर कामक्रोधादिरूपी राक्षसोंका वध कर, शान्तिरूपी सीताजीके साथ विराजता है। इसके तात्पर्यका निम्नलिखित विवरण है-

सीतोपनिषद् में बतलाया गया है कि श्रीरामचन्द्रजीको धर्मपत्नीरूपी श्रीसीताजी सच्चिदानन्दकन्द परमात्मस्वरूपी भगवानकी चिद्रूपिणी महाशक्ति हैं। वह महाशक्ति आनन्दस्वरूपी भगवानके साथ रहनेवाली शान्तिस्वरूपिणी महासम्पत्ति होती है। इस शान्तिस्वरूपिणी सीताजीको यदि कामक्रोधादिरूपी राक्षसोंका अधिपतिरूपी अहंकार स्वरूपी रावण अपनाना चाहे और उठाकर ले भी जाय, तो भी शान्तिस्वरूपिणी श्रीसीताजीका तो आत्मारामरूपी श्रीरामजीके ही साथ रहना सम्भव है, अन्य किसीके साथ कदापि नहीं । अतः काम-क्रोधादि राक्षसोंके राजा अहंकाररूपी रावणके साथ मिलकर उसकी होकर रहना शान्तिरूपिणी सीताजीके लिये सर्वथा अशक्य और असम्भव है। इसीलिये शान्तिरूपिणी सीताजी रावणका घोर तिरस्कार ही किया करती हैं क्योंकि वह तो- 'रावणो लोकरावण: ' है, अर्थात् सारी दुनियाको लगातार दुःख. पर दुःख देता हुआ, उसे रुलाते ही रखनेवाला अहंकाररूपी
राक्षसेश्वर है जिसके साथ शान्ति कदापि ठहर नहीं सकती ।

अतएव श्रीमद्भागवत दशमस्कन्धके रासपञ्चाध्यायी में ऐसा एक प्रसंग आता है कि अपनेको भूलकर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजी के साथ नाचती, खेलती और गाती हुई आनन्दमें निमग्न हुई श्रीकृष्ण के दिव्य दर्शन करनेवाली गोपियोंके मनमें जब अहंकार था गया, तब भगवान् एकदम अन्तर्धान हो गये। क्योंकि अहंकार और परमात्म-दर्शन एक साथ कभी नहीं हो सकते, परन्तु जब भगवान् के गुम हो जाने पर गोपियाँ बढ़े दुःखमें पड़कर उनकी खोजमें लगती हैं और १- तन्मनस्कास्तदात्मिका: उन्हींके सतत ध्यानसे पुनः अपनेको सर्वथा भूलकर तद्रूप बन जाती हैं, तब -

तासामाबिरभूच्छौरिः स्मयमानमुखाम्बुजः ।

-भगवान् हँसते-हँसते फिर प्रत्यक्ष हो जाते हैं, क्योंकि अहंकार के छूट जानेपर परमात्माका दर्शन निर्विघ्नतासे हो सकता है ! इसीलिये श्रीमद्भागवतके दशमस्कन्धमें यह बात भी हुई कि परमात्म-रूपी भगवान् अवतीर्ण होनेके बाद अहंकार रूपी कंससे कभी मिलते ही नहीं और जब मिलते हैं तब उसे मार डालने के लिये ही मिलते हैं। अतएव शान्तिरूपिणी सीताजी अहंकाररूपी रावणले मिल ही नहीं सकती !

अब यह देखना है कि शान्तिरूपिणी सीताजी आत्मारामरूपी श्रीराम के साथ किसप्रकारसे मिलती हैं ? पहले तो श्रीहनुमानजीके द्वारा सीताजीका पता लगाया जाता है। आध्यात्मिक दृष्टि से यह हनुमान् कौन-से तत्व हैं ? हनुमानजी जिज्ञासा या विचाररूपी आध्यात्मिक तत्व हैं, विचार के द्वारा आत्मारामको यह पता लग सकता है। कि शान्ति कहाँ रहती है ? हनुमानजी (विचार) से ही पता लगता है कि सीताजी (शान्ति) को लंका में ( अर्थात् लीयते यस्मिन्कर्मणि तद्यथा भवति तथा लं, कः आनन्दः, आ वृत्तिः, अर्थात् नश्वर आनन्दकी वृत्तिमें) रावणने (अहंकारने) रख छोड़ा है। वहाँ (लंकामें) रक्खे जाने पर भी सीताजी ( शान्ति) किसी विपरीत स्थान में नहीं रक्खी जाती, वह केवल 'अशोक' वनमें (अर्थात् दुःखलेशरहित और सन्तत धाराप्रवाहरूपी स्वरूपभूत आनन्दमें ही) स्थित रहती है,
इसका कारण यह है कि जन्य अर्थात् विकाररूपी ('यज्जन्यं तदनित्यम्', इस न्यायसे) नश्वर आनन्दमें यथार्थं शान्ति कभी नहीं रह सकती, क्योंकि उसका तो वास्तविक स्थान अशोक (आनन्द) का वन ही है।

-
क्रमशः
साभार : कल्याण
संकलन : पं. हीरेनभाई त्रिवेदी,क्षेत्रज्ञ
श्रीवैदिकब्राह्मणः🚩गुजरात
परमधर्मसंसद१००८

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*पूज्यपाद श्रीउड़िया बाबा के उपदेश*

प्रश्न – 'असंगशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा । ततः पदं तत्परिमार्गितव्यम्' इस गीताके वचनमें जो असंग शस्त्र माना गया है वह क्या है और उसके पीछे जिस मार्गकी खोज करनेको कहा है वह क्या है ?

उत्तर –सदसद्विवेकवती बुद्धिसे आत्मा और अनात्माका विचार करना असंग शस्त्र है । जब अनात्मासे आत्माकी पूर्ण असंगताका अनुभव होने लगे तो उसे ही असंग शस्त्रद्वारा छेदन करना कहा जाता है। उसके पीछे साधकको यह प्रश्न होता है कि ईश्वर कहाँ है और कैसा है ? उसपर विचार करना ही 'उस मार्गकी' खोज करना है। उस समय गुरु महावाक्यका उपदेश करते हैं जिससे साधकको उस पदकी प्राप्ति होती है जहाँसे वह फिर इस संसारचक्रमें नहीं लौटता ।

प्रश्न – पूर्ण ज्ञाननिष्ठा कब समझनी चाहिये ?
उत्तर – जब सम्पूर्ण प्रपञ्च गन्धर्वनगरवत् अथवा आकाशकुसुमवत् मालूम होने लगे और कोई भी चमकीला विषय अपनी ओर आकर्षित न कर सके ।

प्रश्न – निस्सन्देह ज्ञान (श्रवण-मननजन्य ज्ञान) हो जानेपर असंगताके अभ्यासकी आवश्यकता क्यों है ?
उत्तर – परमार्थतत्त्वका ज्ञान हो जानेपर भी दीर्घकालीन अभ्यासके कारण चित्तमें बैठी हुई विषयोंकी प्रीति दूर नहीं होती — विषयोंका आकर्षण बना ही रहता है। उसे दूर करनेके लिये असंगताके अभ्यासकी आवश्यकता है, क्योंकि बिना अभ्यासके आत्मानन्दकी दृढ़ता नहीं होती और बिना आत्मानन्दकी दृढ़ताके विषयोंमें सुखबुद्धि बनी रहती है। अतः विषयोंसे उपराम होनेके लिये और आत्मानन्दकी प्राप्तिके लिये अभ्यास अवश्य करना चाहिये । अभ्याससे यह बात दृढ़ हो जायगी कि मैं चराचरका द्रष्टा हूँ और सम्पूर्ण दृश्य मरुभूमिका जल है ।

दृढ़ ज्ञान हो जानेपर जो भाव जागृतिमें रहता है वही स्वप्नमें भी रहता है। जो मनुष्य मांस नहीं खाता, वह स्वप्नमें भी मांस-भक्षण नहीं करता । सच्चा ब्रह्मचारी स्वप्नमें भी स्त्री - सेवन नहीं करता । परन्तु ऊपरसे ही ज्ञानकी बातें बनानेवालोंपर जब थोड़ी-सी भी आपत्ति आती है तो वे सब ज्ञान भूल जाते हैं। सच्चा ज्ञानी तभी समझना चाहिये जब सिरपर दुःखोंका पहाड़ टूट पड़नेपर भी निष्ठासे विचलित न हो ।

प्रश्न-
यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः ।
आत्मन्येव च संतुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ॥
(गीता ३ । १७)
इस श्लोकमें आत्मरति, आत्मतृप्त और आत्मामें सन्तुष्ट इन तीन विशेषणोंका प्रयोग हुआ है। इनमें क्या अन्तर है ?
उत्तर – आत्मानन्दमें डूब जाना आत्मरति है। आत्मरति हो जानेपर भी विषयोंमें प्रेम हो सकता है; जैसे ध्रुव-प्रह्लादादिने भगवत्प्राप्तिके पीछे भी।राज्यभोग किया। इसलिये आत्मतृप्त विशेषणका प्रयोग किया गया है अर्थात् जिस समय आत्माके सिवा और किसी वस्तुकी इच्छा न रहे तभी समझना चाहिये कि साधकको कुछ कर्तव्य नहीं है। आत्मतृप्त ही आत्मामें सन्तुष्ट कहा जाता है ।

प्रश्न – आत्मक्रीडा और आत्ममिथुन क्या है ?
उत्तर – आत्मा- सम्बन्धी कथनोपकथनका नाम आत्मक्रीडा है तथा आत्मचिन्तनको आत्ममिथुन कहते हैं ।

प्रश्न – जगत्से असंगताका अनुभव हो जानेपर
यदि जगत्की सत्ता बनी भी रहे तो क्या हानि है ?
उत्तर – असंगताका निश्चय हो जानेपर भी यदि जगत्की सत्यता बनी रही तो उसमें आसक्ति हो जाना बहुत सम्भव है, क्योंकि बिना असत्यताके निश्चयके जगत्में रमणीय बुद्धि दूर नहीं होती। इसलिये उसकी असत्यताका बोध भी परमावश्यक है।

जय भगवान 💐
संकलन : पं. हिरेनभाई त्रिवेदी, क्षेत्रज्ञ
श्रीवैदिकब्राह्मणः🚩गुजरात
परमधर्मसंसद१००८
https://www.instagram.com/shrivaidikbrahmanah
*श्रीरामायण-तत्त्व-रहस्य भाग ७*
गोवर्धनपीठाधीश्वर पूज्यपाद जगद्गुरु श्रीशंकराचार्य स्वामीजी श्री १०८ श्रीभारती कृष्णतीर्थजी महाराज

गतांक से -

इसके सिवा श्रीमद्रामायण में यह भी बतलाया जाता है कि जिस सीताजीको रावण ले गया था वह तो छाया सीता ही थी । असली सीताजी तो श्रीरामजीकी अग्निमें छिप गयी थी। इसका आध्यात्मिक तातपर्य यह है कि जिस शान्तिको अहंकाररूपी रावण ले जाकर नश्वर आनन्दरूपी लंका में रखकर देखता है, वह तो शान्तिकी छाया या आभासमात्र है। असली शान्ति तो आत्मारामरूपी श्रीराम की ज्ञानरूपी अग्निमें ही छिपी रहती है। अहंकाररूपी रावणको वह जरासी भी नहीं मिल सकती। उठाकर ले गयी हुई उस छाया-सीताको भी जब लंका (अर्थात् नश्वर आनन्दवृत्ति) में विचाररूपी हनुमानजी देखते हैं तो वह छाया-सीता (अर्थात् शांतिकी छाया या आभास) भी बाहरकी वस्तुओंमें न होकर लंका में भी (अर्थात् नश्वर आनन्द में भी) अशोकवनमें अर्थात् भीतरके मूलस्वरूपरूपी सच्चिदानन्दके वन या भण्डारमें ही दिखायी पड़ती है।

भगवती श्रुति भी कहती है-
तस्यैव मात्रामुपजीवन्ति ।

इसप्रकार विचाररूपी हनुमानजीने शान्त्याभासरूपी छाया-सीता के रहने के स्थानका पता लगाकर आत्मा रामरूपी श्रीरामको बतलाया । अतएव हनुमानजीका यह प्रसिद्ध स्तोत्र आध्यात्मिक दृष्टिसे भी ठीक है कि-

अञ्जनानन्दनं वीरं जानकीशोकनाशनम्।
कपीशमक्षहन्तारं वन्दे लंकाभयङ्करम् ॥

अञ्जना = बुद्धि (अनक्ति, अज्यते चेति कर्तरि कर्मणि च युद्) । बुद्धिका पुत्र तथा बुद्धिको आनन्द देनेवाला तो विचार ही होता है। जो काम अविचारसे किये जाते हैं, उनसे बुद्धिको उस समय कितना भी आनन्द हो, परन्तु पीछे तो भयङ्कर पश्चात्तापका दुःख ही भोगना पड़ता है।

वीरं = अर्थात् (वि + ईर) प्रेरक विचारसे ही यथार्थ हितके लिये प्रेरणा होती है। विचार ही वास्तव में वीर होता है। अविचारसे यद्यपि तात्कालिक विकाररूपी वीरता होती है पर अन्ततक रहनेवाली यथार्थ वीरता नहीं होती। जानकी अर्थात् (जायते इति जनः, जनश्चासौ कश्च अर्थात् आनन्दध जनकः) जन्य आनन्दसे उत्पन्न होनेवाली बुद्धि वृत्ति जन्य आनन्दसे उत्पन्न हुई वृत्तिमें जो दुःख होता रहता है, उसका भी विचारसे ही नाश हो सकता है ।

कपीश अर्थात्- (कं आनन्दं पिबन्तीति कपयः, अर्थात् दश इन्द्रियाणि मनश्च, तेषां ईश:) इन्द्रियोंको तथा मनको अपने वश में रखनेवाला। यदि इनको वशमें न रक्खा जाय, तो विचार हो ही नहीं सकता, फिर तो विकारोंका ही राज्य हो जाता है। अथवा (कपिः आनन्दपायी तत्त्वतः परमेश्वरः स एवं ईशो नियन्ता यस्य सः) केवल परमात्माका शासन माननेवाला विचार चाहिये, और किसी पदार्थ के दबाव में छा जाय तो भी यथार्थ विचार नहीं हुआ।

अक्ष शब्दका एक अर्थ तो इन्द्रिय है। अतः अहंता शब्दका अर्थ कपीश शब्दके पहले बताये हुए अर्थमें ही आ गया है। ‘अक्ष' शब्द का दूसरा अर्थ (द्यूत-क्रीड़ामें साधनरूपी अक्षोंसे लक्षणा करके ) होता है संशयात्मक । अतः अज्ञहन्ता याने संशय ( और उसके साथ उपलक्षण विधया विकल्प और विपरीत भावना ) का नाशक विचार तबतक पक्का नहीं हो सकता, जबतक संशयादिका मूलसे ही निर्मूल न हो जाय, बल्कि श्रीमद्भगवद्गीता में तो श्रीभगवान्ने यहाँ तक कहा है कि-

'संशयात्मा विनश्यति'
इसीलिये विचाररूपी हनुमानजीको सबसे पहले अहंकाररूपी रावणके पुत्र संशय ( विकल्प और विपरीत भावना ) रूपी अक्षकुमारको मार डालना पड़ता है।

लङ्का यानी नश्वर आनन्दवाली चित्तवृत्ति । इसका तो विचारसे अवश्य ही नाश हो जाता है और शाश्वत ( स्वरूप भूत) सच्चिदानन्दवाली बुद्धिवृत्ति में पहुँचनेका यही साधन है। एतएव विचाररूपी हनुमान्जी नश्वर आनन्दवाली चित्तवृत्तिके भयङ्कर शत्रु होते हैं ।

अब स्पष्ट हो गया कि उपर्युक्त लक्षणवाले विचारसे (जिसका नाम हनुमानजी है) ही शान्तिका (जिसका नाम सीताजी है) पता लगाया जा सकता है। अन्य किसी साधन, उपाय या युक्तिसे नहीं। और उस विचार के लिये भी, जिससे शान्तिका पता लगाना हो, सर्वप्रथम रागद्वेषादि मनोमालिन्यसे रहित होना अर्थात् अज्ञानरूपी समुद्रसे पार होना पड़ता है, क्योंकि रागद्वेषादिके साथ किये हुए विचारसे शान्तिका पता नहीं लग सकता। इसलिये हनुमानजी को सबसे पहले समुद्र पार होना पड़ता है।

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क्रमशः
साभार : कल्याण
संकलन : पं. हीरेनभाई त्रिवेदी,क्षेत्रज्ञ
श्रीवैदिकब्राह्मणः🚩गुजरात
परमधर्मसंसद१००८

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*श्रीरामायण-तत्त्व-रहस्य भाग ८*
गोवर्धनपीठाधीश्वर पूज्यपाद जगद्गुरु श्रीशंकराचार्य स्वामीजी श्री १०८ श्रीभारती कृष्णतीर्थजी महाराज

गतांक से -

परन्तु यह अवस्था केवल विचार दशा की बात है, इसलिये हनुमानजी अन्तरिक्ष में ही कूद पड़ते हैं, पके पुलसे नहीं जाते, परन्तु जब सीताजीका पता लगने पर उसकी प्राप्तिके लिये जाना होता है, तब तो साधनरूपी पक्की सेतुसे ही जाना होता है। अर्थात् पहले मनोरूपी अन्तरिक्षसे ही विचाररूपी हनुमानजी चलते हैं परन्तु जब शान्तिरूपी सीताजीका पता लग जाता है और उसकी प्राप्तिके लिये आत्मारामरूपी रामजीका जाना होता है तब साधनरूपी पक्की सेतु बाँधकर उससे ही जाते हैं, क्योंकि उक्त लक्षणवाले विचाररूपी हनुमानजीसे शान्ति सीताजीका लगानेसे ही, आत्मारामरूपी रामजीका कार्य पूरा नहीं हो जाता, अर्थात् केवल इस सिद्धान्तके ज्ञान (Theorical knowledge ) से ही, कि, 'शान्तरूपी सीताजीका आभास भी अशोकवन में रहा करता है' काम पूरा नहीं हो जाता।आत्मारामरूपी रामजीको स्वयं धाकर, पक्की साधनरूपी सेतुसे अज्ञानरूपी समुद्र पारकर काम-क्रोधादि परिवार समेत अहंकाररूपी रावण का वध करके, शान्तिरूपी सीताको प्राप्त करना पड़ता है।

श्रीरामायण की कथा में इसी प्रकारसे अन्यान्य सब पदार्थों के भी आध्यात्मिक तस्वरूपी अर्थ होते हैं ( जैसे श्रीमद्भगवद्गीता, श्रीमद्भागवत, श्रीमन्महाभारत आदिमें धृतराष्ट्र, सञ्जय, द्रोण, भीष्म, कृप, पाण्डु, कुन्ती, माद्री, कर्ण, युधिष्टिर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव, द्रुपद, द्रौपदी, घृष्टद्युम्न, शिखण्डी, श्रीकृष्ण, देवकी, वसुदेव, सुभद्रा, अभिमन्यु, अश्वत्थामा, जयद्रथ, मथुरा, गोकुल, वृन्दावन, द्वारका, विराट्, हरिद्वार, हृषिकेश, शङ्ख, चक्र आदि सब पदार्थों के सुन्दर-सुन्दर आध्यात्मिक तत्वरूपी अर्थं होते हैं ) । परन्तु विस्तार भयसे उन सबका उल्लेख नहीं किया जाता। यहाँ जो बातें ऊपर बतायी हैं, ये तो केवल स्थालीपुलाकन्यायसे दिग्दर्शनमात्रके लिये हैं।

इसप्रकार सिद्ध हो गया कि आचार, व्यवहार, शूरता, प्रजापालन, कर्मकाण्ड, उपासनाकाण्ड, ज्ञानकाण्ड, आध्यात्मिक तत्वादि सभी दृष्टियोंसे श्रीरामचन्द्रजीकी कथा हमलोगोंके लिये स्मरण-नामोच्चारणादिजन्य अनन्त पुण्य देनेके अतिरिक्त, अवश्य ही शिक्षणीय और बड़े-बड़े गहन से गहन लौकिक, व्यावहारिक और पारमार्थिक तथा आध्यात्मिक तत्वोंसे भरी हुई है।

अब प्रश्न यह है कि ऐसे श्रीरामायण और श्रीरामचन्द्रजीके साथ हमलोगोंका क्या सम्बन्ध होना चाहिये ।

श्रीमद्रामायण के साथ हमारा श्रद्धा भक्ति और नम्रता से शिक्षा लेनेवालोंका ही सम्बन्ध होना चाहिये और भगवान् श्रीरामचन्द्रजी के साथ तो यही सम्बन्ध होना चाहिये कि हम अपने हृदयको बिल्कुल खाली और शुद्ध करके, भगवान् को हृदय-सिंहासनपर बिठाकर श्रद्धा, भक्ति, प्रेम और आत्मसमर्पणके भावसे उनकी सेवा करनेवाले बन जायें।

इस सम्बन्ध में भगवती श्रीराधाजीका एक महान् उपाख्यान सर्वदा स्मरणीय है। यद्यपि श्रीराधाजी भगवानकी खूब प्रेमसे सेवा करती थीं तथापि अपने अहंकार में एक दिन भगवान् की मुरलीसे पूछती हैं कि 'हे मुरली, तुमने जन्मान्तरोंमें ऐसा क्या बड़ा पुण्य किया था जिससे इस जन्म में अचेतन वंशी रूप में आकर श्रद्धा, भक्ति, प्रेम यादि न करती हुई भी, नित्य भगवान् के अधरामृत पीनेका सौभाग्य प्राप्त करती हौ ।' सुरली जवाब देती है कि 'राधाजी ! मुझे तो पता ही नहीं कि जन्मान्तरमें मैं क्या थी, और क्या करती थी। हाँ इसी जन्मकी एक खास बात मेरे ध्यान में है वह यह कि मेरे अन्दर तो कुछ है ही नहीं, भगवान् मुझको अपने मुखमें लगाकर अपनी मरजीके अनुसार जो स्वर या राग- रागिणी देते हैं वही मेरा स्वर, राग और मेरी रागिणी है, मेरी कोई भी स्वतन्त्र इच्छा या खयाल नहीं है ।

सम्भव है कि भगवान् इसी कारण से मुझपर प्रसन्न हों।' मुरलीके इन मार्मिक वचनोंसे श्रीराधाजी समझ जाती हैं और मुरलीकी भाँति अपने हृदयको बिल्कुल खाली तथा शुद्ध बनाकर उसके भीतर सिंहासनपर भगवान्‌को विराजित कर देती हैं। उसीका यह परिणाम है कि आजतक भी दुनियाँ में भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजीके नाम के साथ श्रीराधाजीका नाम इतने स्थायीरूपसे जुड़ा हुआ है जितना किसी भी अन्य (गोपी या रानी) का नहीं जुड़ा।

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यह तो हुआ भगवान् के लिये अपने हृदयको खाली और शुद्ध बनाकर सिंहासन बनानेका फल । अब और एक दृष्टान्तसे ( जिसमें शब्दश्लेपसे चमत्कार है ) पता लगाया जा सकता है कि भगवान् के लिये ऐसा (श्रद्धा, प्रेम, दासता और भक्ति, रखने पर क्या फल मिलता है ? जब नलके हाथसे फेंके हुए पत्थर आदिसे समुद्र पर सेतुके बन सकनेकी आशा होने लगती है और भगवान्को यह खबर मिलती है, तब भगवान् स्वयं जाकर उस अद्भुत दृश्यको देख नलसे पूछते हैं कि 'हे नल ! तुमको यह महिमा कहाँसे मिली ?' वह कहता है कि 'भगवन्, आपहीके नामोच्चारण के प्रतापसे यह काम हो रहा है तब भगवान्ने
अपने ही हाथसे एक पत्थर समुद्र में फेंका और जय वह डूबने लगा तो भगवान्ने फिर पूछा कि 'हे नल ! मेरे नामके प्रभावसे जो कार्य तुमसे हो सकता है और हो रहा है, वह मेरे हाथसे क्यों नहीं होता ?" तब नलने शब्दश्लेपसे बड़ा ही चमत्कारी उत्तर दिया, कि 'हे भगवन् ! आप तो त्रिलोकीके नाथ हैं, पत्थरकी तो बात ही कौन-सी है।

साक्षात् देवेन्द्र भी अगर आपके हाथसे फेंक दिया जायगा तो वह तो अवश्य डूबेगा ही, जिसको आपने हाथसे फेंक दिया, वह कैसे बच सकता है ?'

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क्रमशः
साभार : कल्याण
संकलन : पं. हीरेनभाई त्रिवेदी,क्षेत्रज्ञ
श्रीवैदिकब्राह्मणः🚩गुजरात
परमधर्मसंसद१००८
*श्रीरामायण-तत्त्व-रहस्य भाग ९*
(अंतिम भाग)
गोवर्धनपीठाधीश्वर पूज्यपाद जगद्गुरु श्रीशंकराचार्य स्वामीजी श्री १०८ श्रीभारती कृष्णतीर्थजी महाराज

गतांक से -

*यस्तु रामं न पश्येत्तु यं च रामो न पश्यति ।*
*निन्दितः स भवेल्लोके स्वात्माप्येनं विगर्हति॥*

अर्थात् जो ( भक्ति और प्रेमके भावसे ) रामको नहीं देखता तथा जिसको ( दया के साथ ) राम नहीं देखते वह तो दुनिया में और अपने हृदय में भी घृणित ही होगा।

इस उपाख्यान में यद्यपि 'डूबने' शब्दपर किये हुए शब्द-श्लेप के चमत्कारसे लाभ उठाया गया है, तो भी तात्पर्यं तो सिद्धान्त रूपसे ही निकलता है कि जो मनुष्य भगवान्‌को अपने हृदयसे फेंककर भगवान् के हाथमें ( या वश में अर्थात् सेवा में ) नहीं रहता, वह तो भगवान् के हाथसे छूट जानेपर, भगवान् के हाथसे छोड़े हुए पत्थरकी भाँति ( संसाररूपी या अज्ञानरूपी ) महासमुद्र में एकदम डूब ही जायगा, वह कभी बच नहीं सकता।

अतएव हमलोगोंको चाहिये कि हम अपने हृदयरूपी सिंहासनको बिल्कुल खाली तथा शुद्ध करके, उसपर भगवानको बिठा दें, फिर भगवान् जो केवल भक्तवत्सल ही नहीं हैं, बल्कि स्वयं अपनेको भक्त-भक्त और भक्तपराधीन बतलाते हैं, वह तो अपनी ही -
'अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥
'न मे भक्तः प्रणश्यति
" तेषां योगक्षेमं वहाम्यहम्" इत्यादि
- प्रतिज्ञाओंको अवश्य पालेंगे और स्वयमेव ही हमारे पापों तथा तज्जन्य दुःखोंको दूर करके, हमारे योगक्षेमके भारको अपने कन्धोंपर वैसे ही उठा लेंगे जैसे उन्होंने प्रह्लाद, द्रौपदी, मीराबाई आदि अपने भक्तोंके भारको बारम्बार उठाया था।

हम सभी दुःखोंसे मुक्त होकर शान्ति और आनन्दमें रहना चाहते हैं परन्तु शान्तिरूपिणी सीताजी आत्मारामरूपी रामको छोड़कर दूसरे किसी के साथ कभी नहीं रह सकती और-'अशान्तस्य कुतः सुखम् ।

बिना शान्तिके आनन्द भी नहीं रह सकता, इसलिये हम संस्कृत और हिन्दीके एक अतिसरल शब्द श्लपसे लाभ उठाते हुए, इस लेखका उपसंहार करते हैं कि यदि तुम आराम चाहते हो, तो मनसे, वाणी से और अपने कामसे खूब जोरसे कहो 'आ राम !' अभी तो 'जा राम' 'जा राम' कहते रहते हो, अर्थात् अपने हृदयके भीतर रामके लिये स्थान नहीं देते हो तो राम कैसे आ सकता है ? अर्थात् 'आराम' कैसे हो सकता है ?

एतएव अगर चाहते हो आराम, तो मनसे चाहो 'आ राम', वाणी से कहो 'आ राम' कामसे भी कहो 'आराम' और फिर पाते रहो 'आराम'- जय भगवान् श्रीरामचन्द्रजी की।


तीर्त्वा मोहमहार्णवं स्थिर निजानन्देप्सया रावणं
हत्वा काममुखासुरव्रजवृताकारलंकाधिपम् ।
भूयः प्राप्य विचाररूपहनुमत्पूर्वेक्षितां प्रेयसी
सीतां शान्तिनिजाकृतिं विजयते ह्यात्माभिरामो हरिः॥

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जय श्री राम
इतिश्रीरामार्पणमस्तु।
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जय वेदनारायण💐
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*श्रीरामरक्षास्तोत्रम्*

https://youtu.be/ig8SoFZZWgQ?feature=shared

श्रीरामनवमी की समस्त सनातन धर्मावलंबियों को हार्दिक शुभकामनाएं 💐💐
श्रीदक्षिणामूर्ति स्तोत्रम्(ध्यान श्लोक सहित)॥
(हमारी चैनल को सपोर्ट और शेयर करें)
https://youtu.be/oiw4Ar4iRcM?feature=shared

तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये॥
*भगवान श्रीराम कृत शंभुस्तुतिः*

श्रीब्रह्मपुराण अध्याय १२३ (गौतमीय ५४) में भगवान श्रीराम द्वारा महादेव जी को प्रसन्न करने के लिए स्तुति करी वो यहाँ प्रस्तुत कर रहें है।

https://youtu.be/VXMZoPhIpYU

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जय श्रीराम 💐
हर हर महादेव 💐
*जय जय परशुराम*🚩🙏🏽

भगवान श्रीपरशुरामजी का प्रातः स्मरण।

*जगत के प्रथम राम भृगुनन्दन राम जी की जय हो।*

https://youtu.be/yyuPXr0v9Fg

नारायण।💐
जगत के प्रथम राम भृगुनंदन राम। श्रीपरशुराम जयंती एवं अक्षय तृतीया की हार्दिक शुभकामनाएं।

*भगवान श्रीपरशुराम स्तोत्र।*

https://youtu.be/Pw9eoHD3qEE

जय जय श्रीपरशुरामजी💐
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2024/05/17 08:59:59
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